भारत ही नहीं वरन विश्व साहित्य में मुँशी प्रेमचंद जी का एक अलग स्थान है, और बना रहेगा | शायद ही कोई ऐसा साहित्य प्रेमी होगा, जिसने मुँशी प्रेमचंद जी को न पढ़ा हो | शायद अब उनके बारे में कुछ और कहने को बचा ही नहीं है| वो एक महान साहित्यकार ही नहीं, एक महान दार्शनिक भी थे | मेरी तरफ से उस महान कलम के सिपाही को एक श्रद्धांजलि के रूप में समर्पित यह ब्लॉग, जिसमे मैं उनके अमूल्य साहित्य में से उनके कुछ महान विचार प्रस्तुत करूँगा........

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दिसंबर 10, 2010

क्रोध की अग्नि



"क्रोध की अग्नि सदभावों को भस्म कर देती है| 
प्रेम और प्रतिष्ठा, दया और न्याय सब जलकर राख़ हो जाता है|"
          
         -  मुँशी प्रेमचंद

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सार्थक और सटीक विचार हैं ...

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  2. वैज्ञानिक भी कहते हैं कि क्रोध क्षणिक पागलपन है, पर सारे सद्भाव जो नष्ट हुए से लगते हैं वास्तव में क्रोध के धुएँ में छिप जाते होंगे !

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  3. इमरान साहब,
    क्रोध मनुष्य को पक्षतावे के सिवा कुछ नहीं देता है ! आपकी पोस्ट बहुत सार्थक है !
    आभार,
    -ज्ञानचंद मर्मज्ञ

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  4. जी कोशिश तो रहती है इस अग्नि तो प्रज्वलित न होने दूँ .....

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जो दे उसका भी भला....जो न दे उसका भी भला...